दिनों बाद जीवनानंद

दिनों बाद जीवनानंद ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी ,
और बोले----- चलो चलें , घूम आयें इस बरसती बूंदों से भीगे हरे भरे
वन में ,
ठीक उसी वक़्त एस 0 टी 0 डी 0 पर एक जरूरी ट्रिंग … ट्रिंग … रिंग
कहा --- आज नहीं , चलेंगे फिर किसी दिन सैर को ।
उस वक़्त जब रात का दूसरा प्रहर ; कते लाश की तरह स्वप्न लोड़कर मैं
आँखे खोलता हूँ । हेमंत जैसे अटका हुआ था खुले खिड़की पर ।
जीवनानंद म्लान हँसते हुए चेहरा आगे बढ़ा कर बोले ------ जाओगे क्या
?
आँखे रगड़ कर देखता हूँ कविताओं के पन्ने उड़ रहे हैं
कांक्रीट के क्वाटरों के टैरिसों पर ।
हँस उठता है अन्धकार ---- क्या कोई कविता पढ़ता भी है ?
थकी आँखों से जीवनानंद खट - खुट करते चले गए और भी अन्धकार में ;
कह गए ----- ठीक है आज जाता हूँ ।
कई दिनों बाद एक शाम जीवनानन्द सैर करने आये ,
टन - टून करता हुये उस हाथ रिक्शा में बैठ ।
उस दिन मैं भी घर पर नहीं था , कपाट बंद था , शायद
ड्यूटी पर था या क्लब के बार में ।
लौट कर देखता हूँ , सिर्फ पड़ा हुआ है उनके हाथों का लिखा एक कागज
का पुर्जा :
हो सके तो पहुँच जाना शिवनाथ नदी के निकट , शमशान के पास ,
शाम सात बजे
संग उसे भी ले आना जिसे तुम " बनलता सेन " कहते हो ।
असहज सी रात । और मैं डूब जाता हूँ एक बेहोशीमें ……
स्वप्न में देखता हूँ हमारी " बनलता सेन " जागती आँखों से
पढ़ती जाती कम्पीटीशन के पाठ ,
कंप्यूटर इंटरनेट मैं उसके चेहरे पर देखता हूँ
कविताओं के पंख तोड़ने का हिसाब और विषादकी छाया ।
००००००
तुम्हारा चेहरा

आग बरस रहा था रास्ते में
गली कूचों में
गुलमोहर पर , तुम्हारा एक चेहरा ।
आग बरस रहा था रास्ते में
वैष्णव पदावली में
ईंट - कांक्रीट के नगर में , तुम्हारा एक चेहरा ।
आग बरस रहा था शाम भी
तुम्हारा रास्ते पर चलाना
तुम्हारे चेहरे , सीने में ----- इतना अभिमान ।
फिर गुच्छों - गुच्छों में
दौड़ कर आई हवा
तुम्हे नहलाकर सराबोर कर गई ,
मेरे घर में
कंपित तुम्हारे दोनों आखें ।
आग के बुझ जाने पर
बचता क्या है ?
राख - राख और उसके भीतर
और भी आग ----------------
तीव्रता ।

आग के भीतर ही जगता है बारबार
एक ही चेहरा , तुम्हारा चेहरा ।
०००००
रचनाकार :------ समरेन्द्र बिश्वास { बांग्ला कवि }
अनुवाद : --------- मीता दास
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