
|
|
मुझे
पिछले दिनों दिल्ली के एक माल की पुस्तकों की दूकान में एक अनमोल
किताब पानी की बोतल से भी कम दाम में मिल गई, और वह थी... कलकत्ता
की रोकेया शेखावत होसेन की किताब सुल्तान का सपना और पद्मराग।
सुलताना का सपना 1905, में कलकत्ता से अंग्रेजी में छपी थी, और
पद्मराग 1924 में। ये दोनों कहानियाँ पूर्णतया स्त्रीवाद की
हिमायती हैं, लेकिन बेहद अलग तरीके से लिखी गईं।
रोकेया का स्वयं का जीवन कठिनाइयों से भरा था, कम उम्र में बड़ी
उम्र के नवाब से विवाह, फिर युवा काल में ही वैधव्य । फिर भी
उन्होने लड़कियों की भागलपुर मे 1910 में पाठशाला भी चलाई, जो बाद
में एक बेहद महत्वपूर्ण पाठशाला के रूप में प्रसिद्ध हुई। 1916 में
रोकेया ने अंजुमा इ ख्वातिन इ इस्लाम नम से महिलाओं की भलाई के लिए
संस्थान खोला। अपनी मृत्यु ( 9 दिसम्बर 1932)तक उन्होंने अपना
जीवन, समाज में महिलाओं के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। उनकी
कहानियों की सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी कथापात्रा समाज से सताई
हुई होते भी बेहद जीवट हैं। वे विरोध दर्ज करने के लिए वाणी की
अपेक्षा कार्य को महत्व देती हैं। अपने कार्यों से ही वे समाज में
अपनी स्थिति महत्वपूर्ण बना लेती हैं। पढ़ते पढ़ते मैं बस आँख उठा कर
इधर उधर देखती हूं कि क्या आज हमारे बीच इतने जिगरे वाली कोई महिला
लेखिका है, जो अपने लेखन से उठ कर समाज के साथ भी जुड़े....
और अनुवादक हैं, रीनू तलवार, अनिल जनविजय और मिता दास।
इन सभी को साधुवाद!
रति सक्सेना
और »
|
|
|
*
सैनिक भाँप सकते हैं
सूंघ सकते हैं उनकी गंध
रास्ते के किनारे बिना दीवार की छत
और मरे हुए ग्यारह लोगों के साँसों की
रूक जाती हैं उनकी धड़कनें ........।
और कितने सालों तक
स्वीकार नहीं होगा उसका निवेदन ?
अकेले
सांसें गिन रही है केवल
मिट्टी के घर ,बंदूकों के घेरे में
सरल-साधारण युवती, मगर एकदम अक्खड़
न कोई डर किसी मेहनत से
न किसी के आगे हाथ पसारना... ।
मोनालिसा जेन
*
ठन्डे किये जाते हैं ताजिये
विसर्जित की जाती है मूर्तियाँ
इसी तालाब में ,
इसी तालाब से शुरू होकर
इसी पर विराम पाता है
त्यौहार का उल्लास
इसी तालाब में
कपड़ों के साथ
धोती पछाडती है औरतें
घर गृहस्ती की परेशानियाँ ,
इसी तालाब में
हंस कर नहाती हैं
बच्चों की मस्तियाँ ,
जवानों की बेफिक्री ,
बुजुर्गों की जिजीविषा ,
गले तक डूबे रहते ढोर - डंगर
बगुले बुझाते प्यास
मछलियाँ लेती साँस
शरद कोकाश
*
मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों मे आ आ कर ध्वस्त होते जा रहे हैं
उनकी तेज रोशनी
गहन उष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही है
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गई हूँ
जिसमें मनुष्यों की भाँति ये मरने आते हैं
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही उष्मा चली जाती है कहीं...
सविता सिंह
और »
|
|
|
अब हम कला की बात करें.. कहने को तो कला किसी की मुहताज नहीं है,
किन्तु इन दिनों जिस तरह से कला में तकनीक की घुसपैठ हो रही है ,
देख कर अचंभा होता है। यह स्थिति करीब करीब हर क्षेत्र में है।
चाहे गायकी हो या फिर नृत्य, फिल्म हो या फिर अन्य कोई विधा ,
तकनीक का प्रभाव नजर आता है। यह प्रभाव कभी अच्छे के लिए होता है
तो कभी नुक्सान भी कर डालता है। आज कलाकार को सुर साधने के लिए
अधिक परिश्रम नही करना पड़ता है, अनेक वाद्य यंन्त्र उसके गले को
सहारा देने को तत्पर रहते हैं। इसका प्रभाव सुरों पर सीधा पड़ता है।
कला का एक अहं रूप है साहित्य। विचित्र बात यह है कि साहित्य में
आधुनिक तकनीक की घुसपैठ बेहद कम हुई है। विशेष रूप से भारत के
सन्दर्भ में साहित्य में तकनीक बेहद कम दिखाई देती है। प्रादेशिक
भाषाओं की बात करें तो हिन्दी साहित्य में आधुनिक तकनीक की स्थिति
बेहद शोचनीय है। इसके कई कारण हो सकते हैं। सबसे प्रमुख बात यह है
कि आज हिन्दी साहित्य अनेक खेमों में बँटा है, एक वह खेमा है जो
केन्द्र या सत्ता के साथ जुड़ा है और दूसरा जो अलग थलग पड़े रच रहें
हैं । अतः जब हम साहित्य की दृष्टि से तकनीक के बारे में चिन्तन
करते हैं तो दोनों पक्षों पर चिन्तन करने की जरूरत है। पहला पक्ष
यह है कि साहित्य आधुनिक तकनीक का पूरी तरह से अनुकरण इस लिए नहीं
कर पाता है कि असली साहित्य रचना का सर्जक मुख्यतया जमीन से जुड़े
लोग होते हैं, .......
और »
|
|
|
ऐसा
हो कि अविश्वास की प्रकट स्थिरता
कभी मेरे मन को छलनी न करे.
मुझे बच कर भाग जाने दो
निराशावाद की सुन्नता से
उचके हुए कन्धों की निष्पक्षता से.
ऐसा हो कि जीवन में हमेशा मेरी आस्था रहे
हमेशा मेरी आस्था रहे
अनंत संभावनाओं में
ठग लो मुझे, ओ जलपरियों के मोहगीतों
छिड़क दो मुझ पर थोडा भोलापन!
मेरी त्वचा, कभी मत बन जाना तुम
कठोर, मोटा चमड़ा.
ऐसा हो कि हमेशा मेरे आंसू बहें
असंभव सपनों के लिए
वर्जित प्रेम के लिए
लड़कपन की फंतासियों के लिए
जो खंडित हो गए हैं सब
ऐसा हो कि मैं भाग निकलूं यथार्थवाद की बद्ध सीमाओं से
बचाए रखूं अपने होंठों के ये गीत
ऐसा हो कि वे असंख्य हों
शोर भरे
और ध्वनियों से परिपूर्ण
ताकि मैं गा के भगा सकूँ मौन दिनों की धमकियाँ.
-------------
साँप
क्या तुमने कभी उस साँप के बारे में सुना है
जिसके आक्रमण का दुष्टतापूर्ण ढंग
झील के तल पर निर्जीव और निस्सहाय
होने का नाटक करना है?
आश्वस्त, कि वह मरा हुआ है, शिकार
बेखटके जाता है उसके पास
और चुकाता है कीमत जल्लाद के इलाके में
अतिक्रमण करने की निपट सरलता की.
एक कपटी सांप की तरह,
समय, हमें इस भ्रान्ति में रहने
देता है
कि उसके भय का कोई अस्तित्व ही नहीं है.....
Raquel Lanseros रकेल लेन्सरस
अनुवाद - रीनू तलवार
और »
|
|
|
यूनानी कवि कंस्तांतिन कवाफ़ी
1. सितम्बर 1903
अब मुझे ख़ुद को धोखा देने दो कम-अज़-कम
भ्रमित मैं महसूस कर सकूँ जीवन का ख़ालीपन
जब इतनी पास आया हूँ मैं इतनी बार
कमज़ोर और कायर हुआ हूँ कितनी बार
तो अब भला होंठ क्यों बन्द रखूँ मैं
जब मेरे भीतर रुदन किया है जीवन ने
औ' पहन लिए हैं शोकवस्त्र मेरे मन ने?
इतनी बार इतना पास आने के लिए
उन संवेदी आँखों, उन होठों को और
उस जिस्म की नाज़ुकता को पाने के लिए
सपना देखा करता था, करता था आशा
प्यार करता था उसे मैं बेतहाशा
उसी प्यार में डूब जाने के लिए
००
2. दिसम्बर 1903
जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की
तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आँखों की, दिलदार की
तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी
तेरी आवाज़ गूँजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी
सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में
मेरी ज़ुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है
रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में
कहना चाहूँ जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है
सीढ़ियों पर
उन बदनाम सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था जब
तभी पल भर को झलक देखी थी तेरी
दो अनजान चेहरों ने एक-दूजे को देखा था तब
फिर मुड़ गया था मैं शक़्ल छुप गई थी मेरी......
००
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय
और
»
|
|